हठयोग [Hathyoga] meaning in Hindi

हठयोग

 एक अत्यन्त ही प्राचीन भारतीय साधन-पद्धति है। इस साधना में शरीर के आधार पर विभिन्न प्रकार के आसन, प्राण के आधार पर विभिन्न प्रकार के
प्राणायाम एवं इन दोनों के मिश्रण से नाना प्रकार के मुद्रा, बन्ध एवं अन्य क्रियाएँ की जाती हैं तथा साथ-साथ ध्यानादि भी किये जाते हैं। महर्षि घेरण्ड ने
अपनी ‘घेरण्ड संहिता’ में इस हठयोग-विद्या के उपदेशक की वन्दना करते हुए लिखा है-
जगदीश्वराय प्रणमास्मि तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या।
अर्थात् जिन्होंने हठयोग-विद्या का उपदेश किया है, उस जगदीश्वर को प्रणाम करता हूँ।इस हठयोग में सप्तसाधन बतलाया गया है, जिन्हें क्रमशः शोधन,
दृढ़ता, स्थैर्य, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष और निर्लिप्त कहा गया है। इन सप्तसाधनों के सम्बन्ध में निम्नलिखित अभ्यास बतलाये गये हैं-

1. शोधन:-

शोधन के लिए षट् क्रियाएँ आवश्यक बतलायी गई हैं। ये षट् क्रियाएँ देह शुद्धि, रोग निवृत्ति एवं स्वास्थ्य वृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी बतलायी गई हैं।
इन क्रियाओं के नाम हैं- नेती, धौती, नौली, बस्ती, त्राटक एवं कपालभाती। नेती क्रिया में करीब 1.5 फीट लम्बे डोरे को नासिका के छिद्र में घुसाकर उसे
मुँह द्वारा बाहर निकालते हैं। इसे सूत्रनेती कहते हैं। उसी तरह जलनेती, दुग्धनेती एवं घृतनेती आदि की क्रियाएँ भी की जाती हैं। इस क्रिया से नाक,
कण्ठ, कान और मस्तिष्क विकारशून्य रहते हैं। धौती क्रिया के द्वारा उदर को स्वच्छ रखा जाता है। इस क्रिया में किसी महीन वस्त्र को जो करीब चार
अंगुल चैड़ा और पन्द्रह हाथ लम्बा हो, उसे गर्म जल में भिगोकर धीरे-धीरे मुँह के द्वारा पेट में घुमाते हुए धीरे-धीरे बाहर निकाला जाता है। इसे गुरु के
सम्मुख उनके निर्देशन में ही करना उपयुक्त है।
हठयोग का अर्थ | Hathyoga meaning in hindi

हठयोग में नौली बस्ती एवं त्राटक आदि

नौली क्रिया के द्वारा उदर को दोनों पाश्र्वों में अत्यन्त वेगपूर्वक घुमाया जाता है। इस क्रिया को भी किसी अनुभवी व्यक्ति से सीखना चाहिए। बस्ती क्रिया
में नाभि तक जल में बैठकर उत्कट आसन लगाकर गुह्य देश का आकुंचन-प्रसारण करना चाहिए। इसके द्वारा जल को ऊपर खींच कर अन्दर चलाकर
फिर थोड़ी देर बाद उसी मार्ग से बाहर कर देना चाहिए। यह क्रिया आज के ‘एनीमा विधि’ से बहुत मिलती-जुलती है। त्राटक क्रिया के द्वारा किसी एक
लक्ष्य पर टकटकी लगाकर बिना पलक गिराये तब तक देखा जाता है, जब तक आँाखों में आँसू न निकल आये। इसके द्वारा नेत्र-रोगों का निवारण
होता है।
कपालभाती क्रिया में लोहे की भाथी के सदृश वायु को खींचा और छोड़ा जाता है। दाँये स्वर से वायु को भरकर बाँये स्वर से रेचन करना और फिर बाँये
से भरकर दाँये से रेचन करना वातक्रम कपालभाती कहलाता है। इसी तरह नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा जल खींचकर मुख के द्वारा निकालना व्युत्क्रम
कपालभाती और मुख के द्वारा जल खींच कर नासिका के द्वारा निकालना शीतक्रम कपालभाती कहलाता है। इन षट् क्रियाओं का अभ्यास ही हठयोग में
‘शोधन’ कहलाता है।

2. दृढ़ता:-

दृढ़ता के लिए आसनों का अभ्यास हठयोग में आवश्यक बतलाया गया है। संसार में प्राणियों की जितनी संख्या है, उतने आसन भी बतलाये गये हैं। मगर
इसमें चैरासी आसन श्रेष्ठ हैं और फिर उसमें बत्तीस आसन विशिष्ट माने गये हैं। ये विशिष्ट बत्तीस आसन हैं- सिद्धासन, पद्मासन, भद्रासन, मुक्तासन,
वज्रासन, स्वस्तिकासन, सिंहासन, गोमुखासन, वीरासन, धनुरासन, मत्स्यासन, मत्स्येन्द्रासन, मृतासन, गुप्तासन, गोरक्षासन, पश्चिमोत्तानासन, उत्कटासन,
मयूरासन, कुक्कुटासन, कूर्मासन, उत्तानकूर्मासन, उत्तानमण्डूकासन, वृक्षासन, मण्डूकासन, गरुड़ासन, वृषभासन, शलभासन, मकरासन, उष्ट्रासन,
भुजंगासन, संकटासन एवं योगासन। योगासनों के अभ्यास से शरीर शक्तिशाली और दृढ़ होता है। विस्तार के कारण प्रत्येक आसन का वर्णन यहाँ नहीं
किया जा रहा है। इसमें सिद्धासन, पद्मासन एवं भद्रासन का विशेष महत्त्व है।

3. स्थैर्य:-

स्थैर्य के लिए मुद्राओं का अभ्यास हठयोग में बतलाया गया है। मुद्राओं की क्रिया से चक्रों का बेधन, कुण्डलिनी-शक्ति का जागरण एवं दिव्य सिद्धियाँ
प्राप्त होती हैं, ऐसा कहा जाता है। हठयोग में पच्चीस मुख्य मुद्राओं का वर्णन मिलता है। ये मुद्राएँ क्रमशः हैं- महामुद्रा, नभोमुद्रा, उड्डीयानबन्ध,
जालन्धरबन्ध, मूलबन्ध, महाबन्ध, महावेध, खेचरी मुद्रा, विपरीतकरणी, योनि, वज्रोली, शक्तिचालिनी, तड़ागी, माण्डवी, शाम्भवी, पंचधारणा, अश्विनी,
पाशिनी, काकी, मातंगनी और भुजंगिनी मुद्राएँ। इसमें से प्रत्येक मुद्राओं का वर्णन करना स्थानाभाव से यहाँ सम्भव नहीं है। जिसे जो मुद्रा अपने शरीर
की प्रकृति के अनुकूल हितकर, सुबोध और अभ्यास के लिए सरल प्रतीत हो, उसी को सद्गुरु-विधान से करने का हठयोग में निर्देश है।

4. धैर्य:-

धैर्य के लिए प्रत्याहार का अभ्यास बतलाया गया है। मन को सब विषयों से हटाकर आत्मा के वश में करना ही यहाँ प्रत्याहार कहलाता है। महर्षि घेरण्ड ने इस सम्बन्ध में कहा है-
यतो यतो मनश्चरति चाचंल्यवशतः सदा।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
अर्थात् जहाँ-जहाँ यह मन विचरण करे, उसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करना चाहिए।

5. लाघव:-

लाघव के लिए हठयोग में प्राणायाम के अभ्यास को आवश्यक बतलाया गया है। प्राणायाम का अर्थ प्राणों का व्यायाम से है। इस शरीर में पाँच प्राण और
पाँच उपप्राण हैैं। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान ये पाँच प्राण हैं और नाग, कूर्म, कृकिल, देवदत्त और धनंजय ये पाँच उपप्राण हैैं। इसमें प्राण का
स्थान हृदय में, अपान का गुदा में, समान का नाभि में, उदान का कण्ठ में और व्यान का स्थान सारी नस-नाड़ियों में व्याप्त है। प्राणायाम में तीन क्रियाएँ
होती हैं, जिन्हें पूरक, कुम्भक और रेचक कहते हैं।
प्राणवायु को भीतर खींचने की क्रिया ‘पूरक’, अन्दर में रोककर रखने की क्रिया ‘कुम्भक’ और बाहर निकालने की क्रिया को ‘रेचक’ कहते हैं। इन
क्रियाओं में पूरक में जितना समय लगता है, उससे चैगुना समय कुम्भक में और दोगुना समय रेचक में लगना चाहिए। प्राणायाम के अनेक भेद बतलाये
गये हैं। इनमें सूर्यभेदी, उज्जायी, मूर्छा, शीतली, भस्त्रिका और भ्रामरी ये छह प्रकार के प्राणायाम मुख्य बतलाये गये हैं। प्रत्येक प्राणायाम में प्राणवायु को
जितनी देर सम्भव हो शरीर के भीतर रोकने का अभ्यास करना चाहिए।

हठयोग में ध्यान

6. ध्येय:-

हठयोग में ध्येय के लिए ध्यान का अभ्यास बतलाया गया है। हठयोग में ध्यान के मुख्यतः तीन भेद बतलाये गये हैं- स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान और ज्योति
ध्यान। जिसमें मूर्तिमय इष्टदेव का ध्यान हो उसे स्थूल ध्यान कहते हैं। सूक्ष्म ध्यान वह है, जिससे विद्युतमय ब्रह्म कुण्डलिनी-शक्ति का ध्यान किया जाय।
तेजोमय ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्मय ध्यान है। इसमें सूक्ष्म ध्यान को सर्वोपरि ध्यान बतलाया गया है।

7. निर्लिप्तता:-

हठयोग में निर्लिप्तता के लिए समाधि आवश्यक बतलाया गया है। समाधि के सम्बन्ध में घेरण्ड ऋषि कहते हैं-
घटाद्भिन्नं मनः कृत्वा ऐक्यं कृत्वा परात्मनि।
समाधिं तद्विजानीयान्मुक्तसंज्ञो दशादिभिः।।
अर्थात् जब योगी शरीर से अपने को भिन्न करके मन को परमात्मा में लगाता है, तभी समाधि की अवस्था में पहुँच कर मुक्त होता है। हठयोग में समाधि
के भी छह भेद माने गये हैं और इनके अलग-अलग साधन भी बतलाये गये हैं। यथा- ध्यानयोग की समाधि शाम्भवी मुद्रा से, नादयोग की खेचरी मुद्रा से,
रसानन्दयोग की भ्रामरी मुद्रा से, लयसिद्धियोग की योनि मुद्रा से, भक्तियोग की मनोमूूूूर्छा से तथा राजयोग की समाधि कुम्भक से प्राप्त होती है।इस तरह
हठयोग के सप्तसाधन के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति एवं मुक्ति होना बतलाया गया है। इसके आदि आचार्य भगवान् शंकर माने गये हैं और यह योग
शिवजी द्वारा बतलाया गया कहा जाता है।

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