भक्तियोग
भक्तियोग भारत के जनसामान्य में विशेष रूप से प्रचलित है। इसमें साधक मस्तिष्क के धरातल पर अध्यात्म के दुरूह शब्दों का चिन्तन किये बिना अपने आराध्य के स्वरूप का ध्यान करते हुए उनकी प्रशस्ति में मन्त्रों का उच्चारण करते हुए या प्रशस्ति के गीत गाते हुए भावविभोर हो अपने को उनके चरणों में समर्पित कर देते हैं। भक्त के हृदय से जब अहंकार एवं वासना मिट जाती हैं, तब उस पवित्र स्थान पर भगवान् स्वयं विराजमान दृष्टिगत होने लगते हैं, ऐसी भक्तियोग की मान्यता है। परमेश्वर के स्वरूप का प्रेमपूर्वक चिन्तन करते हुए मन को तदाकार करना ही भक्तियोग का एक सुलभ उपाय है।
श्रवणं कीर्तणं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
– श्रीमद्भाग0 7/5/23
अपने इष्ट के प्रति प्रेम हार्दिक होना चाहिए और बिल्कुल शुद्ध अन्तःकरण से यह भक्ति-भाव जाग्रत होना चाहिए। इस भक्तियोग में अहंकारशून्यता का महत्त्व रहता है और भक्त अपने भगवान् के प्रति आन्तरिक रूप से पूर्णतः समर्पित रहता है। इसलिए भक्ति कभी भी केवल बाह्य प्रदर्शन के लिए नहीं की जाती बल्कि आन्तरिक भूमि में मन को निर्मल करके समर्पण की भावना के साथ की जाती है।