ज्ञानयोग
ज्ञानयोग से अर्थ उस ज्ञान-मार्ग से है, जिसके द्वारा अविद्या का नाश होकर शुद्ध आत्म-सत्ता का बोध होता है। आत्मा का शुद्ध चेतन स्वरूप इस शरीर में अविद्या आदि आवरण से ढँका रहता है और चिन्तन करते-करते इस आवरण को हटाकर उस शुद्ध स्वरूप को जान लेना ही ज्ञानयोग का साधन है।
इस स्थूल शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म होने से श्रेष्ठ हैं, ज्ञानेन्द्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि एवं बुद्धि से भी सूक्ष्म आत्मा है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है –
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
– गीता 3/42
अर्थात् इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से परे हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी परे है, वह (सः) आत्मा है।
ज्ञानयोग में उस आत्मा को जानना ही ब्रह्म को जानना है, और उस आत्मा को जानने के लिए पहले इन्द्रियों का संयम करके, काम रूपी शत्रु को मार कर, मन और बुद्धि से भी जो परे है, उस आत्म-तत्त्व को पहचाना जाता है।
इस ज्ञानयोग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ अर्थात् इस लोक में ज्ञान के समान कुछ भी नहीं है। क्योंकि ज्ञान की अग्नि में सारे कर्म (शुभ अशुभ बन्धन वाले) जल जाते हैं। यथा-
यथैधांसि समिद्धोऽनिग्नर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।
– गीता 4/37
इस शरीर में हम रहते हैं। मगर हम शरीर नहीं हैं, इस तरह का विवेचन करते हुए साधक इसके निष्कर्ष की ओर बढ़ता है कि हम शरीर के अंग नहीं हैं, यद्यपि शरीर के अंग हमारे हैं। हम इन्द्रियाँ नहीं हैं , यद्यपि इन्द्रियाँ हमारी हैं। हम मन नहीं हैं, यद्यपि मन मेरा है और इसी तरह हम बुद्धि भी नहीं हैं , यद्यपि अपनी बुद्धि का भान हमें है। तो आखिर हम क्या हैं? इस तर्क बुद्धि के द्वारा यह ज्ञान होता है कि हम शरीर नहीं हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं और बुद्धि भी नहीं हैं, अपितु इन सबसे परे जो इन सबका द्रष्टा है- वही आत्मा हम हैं। वही हमारा अपना स्वरूप है। उसी चेतन आत्मा को जानना ज्ञान कहलाता है।
अविद्या या माया के आवरण से हमें अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं रहता है और शरीर इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के समुच्चय मात्र को ही हम अपना स्वरूप मान बैठते हैं। इस आत्मज्ञान का दिग्दर्शन अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों में विशद रूप से किया गया है। उपनिषदों में इस ज्ञान-मार्ग पर विशेष जोर दिया गया है और अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से आत्मा को जानने के लिए ज्ञान की ओर संकेत किया गया है।
यह मान्यता है कि मानव अज्ञानवश बन्धन की अवस्था में पड़ जाता है और इस अज्ञान का अन्त ज्ञान से ही सम्भव है, जो उसकी मुक्ति का कारण बन सकता है। यहाँ ज्ञान से अर्थ अध्यात्म-ज्ञान अभिपे्रत है। ज्ञान के भी दो भेद हैं- तार्किक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान।
वस्तुओं के बाह्य स्वरूप को देखकर बुद्धि के आधार पर उनके स्वरूप की विवेचना करना तार्किक ज्ञान है, जिसे विज्ञान भी कहते हैं। मगर वस्तुओं के आभास में व्याप्त चरम सत्ता का ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है, इसे आत्मा का ज्ञान भी कहते हैं।
जो व्यक्ति इस आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह सब भूतों में आत्मा को और आत्मा में सब भूतों को देखता है। वह सब विषयों में ईश्वर को और ईश्वर में सबको देखता है।
ज्ञानयोग का साधन करने के लिए सर्वप्रथम शरीर, मन और इन्द्रियों को शुद्ध रखकर मन को विषयों से हटाकर ईश्वर एवं आत्मा पर केन्द्रीभूत करते हुए इस शरीर में व्याप्त आत्मसत्ता को जाना जाता है और तब आत्मा तथा ईश्वर में तादात्म्य सम्बन्ध हो जाता है।
आत्मा का शरीर के साथ आसक्त हो जाना ही बन्धन है। वैसे आत्मा स्वभावतः नित्य, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त, अविनाशी है, मगर अज्ञान के वशीभूत होकर वह बन्धन युक्त हो जाती है। अविद्या का अन्त ज्ञान से ही सम्भव है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधन चतुष्टय पर बल दिया जाता है।
1. नित्यानित्य वस्तु विवेक:- नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करने का विवेक।
2. इहामुत्रार्थ:- भोग-विराग, लौकिक एवं पारलौकिक भोगों की कामना का त्याग।
3. शमदमादि साधन:- शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा इन छह साधनों को करना।
4. मुमुक्षत्व:- मोक्ष प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प।
उपर्युक्त चार साधनों से युक्त होने पर गुरु-सान्निध्य में श्रवण, मनन और निदिध्यासन (निरन्तर ध्यान) करते रहने पर जब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति हो जाती है, तब बन्धन का अन्त हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यही ज्ञानयोग का मुख्य सिद्धान्त है।
उपर्युक्त मुख्य विभिन्न योगों की चर्चा करने के बाद हम आज के तथाकथित आधुनिक योगों के सम्बन्ध में भी थोड़ा विचार करेंगे। वैसे तो योग के नाम पर आज नाना प्रकार की साधन-पद्धति में चाहे वे आज्ञाचक्र की साधना करते हों या हृदय में आत्मा के प्रकाश को ढूँढ़ने के लिए हृदय में ही प्रकाश का ध्यान करते हों या स्वर्गिक प्रकाश को देखने के लिए त्रिकुटी में ध्यान करते हों या भावातीत समाधि के लिए मन्त्रों का जाप करते हों या वेद-माता गायत्री का सविता रूप में ध्यान करते हों अथवा वामाचार प्रक्रिया का आधुनिकीकरण करके सामूहिक चिकित्सा के नाम पर यौनाचार करते हों पर ये सभी आधुनिक पद्धतियाँ उपर्युक्त योग-मार्गों के ही किसी-न-किसी अंश मात्र को लेकर चल रही हैं और अपूर्ण होने के साथ-साथ प्राकृतिक होने से ब्रह्म अनुभूति कराने में पूर्णरूपेण सक्षम भी नहीं है।
यह बात दूसरी है कि इनमें से कई साधन-पद्धतियाँ योग के नाम पर आज विदेशों में काफी चर्चित हो रही हैं और विदेशियों की इस ज्ञान के प्रति अनभिज्ञता का लाभ उठाकर धन-ऐश्वर्य अर्जित करने का एक साधन बन गई हैं। आज जो देश-विदेश में सर्वाधिक चर्चित पद्धतियाँ हैं, उनमें महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान और आचार्य रजनीश का लीला योग प्रमुख है।
इनके अतिरिक्त भी अनेक साधन-पद्धतियाँ योग के नाम पर देश-विदेश में प्रसारित हैं, मगर उनकी इतनी अधिक चर्चा जनमानस में नहीं है। इन अर्वाचीन साधन-पद्धतियों के बारे में अब यहाँ थोड़ा-सा विचार करेंगे।