क्रियायोग
‘क्रिया’ शब्द का ही अर्थ होता है- गतिशीलता। इस तरह क्रियायोग से अर्थ समझा जाता है- वह योग जो हमारे मन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर गतिशील रखते हुए मानसिक शक्तियों का जागरण करें और अन्ततः आत्मिक विकास करें।
क्रियायोग की यह विशेषता है कि इसमें ध्यान के लिए मन को नियन्त्रित करने की आवश्यकता नहीं रहती है। इसमें सर्वप्रथम आँखें खुली रखते हुए मन को मनमानी करने की छूट दी जाती है। मन की गति को सिर्फ साक्षी भाव से देखा जाता है। अन्ततः मन धीरे-धीरे स्वयं शान्त होने लगता है। जैसे ही मन शान्त हो जाता है, वैसे ही साधक ध्यान की स्थिति में पहुँच जाता है।
मगर इस क्रियायोग की साधना में अन्य कई प्रकार के अभ्यास भी जोड़ दिये गये हैं। इसमें आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बन्ध तथा हठयोग की कई कठिन क्रियाएँ भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त जप आदि का भी अभ्यास इसमें कराया जाता है। कुल मिलाकर क्रियायोग की तैयारी काफी कठिन है- भले ही इसकी साधना को सरल रूप में चित्रित किया जाय।
इस तरह यह क्रियायोग आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बन्ध, चक्र, प्राण, मन्त्र, जप आदि का एक मिला-जुला अभ्यास है। इस साधन में यह भी माना जाता है कि इस क्रियायोग के अभ्यास से मूलाधार में प्रसुप्त कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होती है और इसके दिव्य अनुभव साधक को प्राप्त होते हैं। यह भी माना जाता है कि इस ‘क्रियायोग’ से हर प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग भी ठीक हो जाते हैं।
इस क्रियायोग में कई प्रकार की क्रियाएँ बतलायी जाती हैं, जिनमें कुछ सामान्य है और कुछ विशेष हैं। संक्षेप में क्रियायोग वह साधन है, जिससे साधना में त्वरित विकास होता है और मन को दबाने का प्रयास नहीं किया जाता है। मन के क्रिया-कलापों को स्वच्छन्द रूप से छोड़ कर उसे केवल द्रष्टा भाव से देखा जाता है। अन्ततः अभ्यास करते-करते यह मन थक कर शान्त हो जाता है और साधक स्वतः ध्यान की स्थिति में आ जाता है।
इस सन्दर्भ में यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि एक तरफ तो मन को बिल्कुल छूट देने की बात की जाती है और इसे सरल योग सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है मगर दूसरी ओर नाना प्रकार की कठिन साधनाओं के द्वारा इस योग की तैयारी की जाती है। साथ ही इसमें आत्मोत्थान किस प्रकार होता है और परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो पाती है, यह भी समझना कठिन प्रतीत होता है। फिर भी यह योग काफी लाकेप्रिय है।