अष्टांग योग या पातंजलि राजयोग
महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में अष्टांगयोग का विवेचन हुआ है। भारत के षट् दर्शनों में महर्षि पतंजलि का योगदर्शन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। महर्षि पतंजलि योग के अनुशासक के रूप में पूज्य हैं।
‘योग’ शब्द की परिभाषा महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में ‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग बतलाया है। चित्त की इन वृत्तियों के निरोध के लिए अभ्यास एवं वैराग्य को आवश्यक बतलाया गया है –
‘‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।’’
और चित्त की वृत्तियों के निरोध से होने वाली उपलब्धि को ‘‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’’ अर्थात् इस समय द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है- ऐसा कहा गया है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए जो साधन बतलाये गये हैं, वे ही अष्टांगयोग कहलाते हैं। योग के आठ अंंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योग के इन आठ अंगों का अनुष्ठान करने से होेने वाले फल की प्राप्ति के सम्बन्ध में महर्षि कहते हैं-
‘‘योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।’’
अर्थात् योग के आठ अंगों का अनुष्ठान करने से चित्त निर्मल हो जाता है और योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक पहुँच जाता है। योग के इन आठ अंंगों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
1. यम:- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (सभी प्रकार के चोरियों का अभाव), ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये पाँच यम कहलाते हैं। ये सभी सामाजिक नियम हैं।
2. नियम:- शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर को सब कार्य समर्पण कर देना) ये पाँच नियम हैं। ये सभी व्यक्तिगत नियम हैं।
यम और नियम का अनुष्ठान मन, वचन एवं कर्म में एकता लाकर करना चाहिए।
3. आसन:- ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् स्थिरता से सुखपूर्वक अभीष्ट समय तक बैठने को आसन कहा गया है।
4. प्राणायाम:- ‘‘तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः’’ अर्थात् आसन सिद्ध होने के बाद श्वास-प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम के करने से ज्ञान के आवरण क्षीण हो जाते हैं। इसके कई भेद भी बतलाये गये हैं। प्राणायाम के अभ्यास से साधक में धारणा की योग्यता आ जाती है- ऐसा कहा गया है।
5. प्रत्याहार:- इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को अपने विषयों से समेट कर मन में विलीन करने के अभ्यास का नाम प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियों पर अधिकार हो जाता है। इसके फल के सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि कहते हैं-
ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।।
अर्थात् इससे योगी की इन्द्रियाँ उसके सर्वथा वश में हो जाती है।
उपर्युक्त पाँच साधनों को बहिरंंग साधन और बाकी तीन साधनों को अन्तरंंग साधन बतलाया गया है।
6. धारणा:- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।
अर्थात् किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है। मन को किसी देश-विशेष में बाँध देना ही धारणा है। धारणा में मन को बार-बार खींच कर उस स्थान-विशेष पर लाना पड़ता है।
7. ध्यान:- तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।
अर्थात् जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाय, उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान है। लक्षित वस्तु में स्थित मन का क्षण मात्र के लिए भी विचलित हुए बिना एक ही प्रकार के प्रवाह में रहना ध्यान कहलाता है। इस प्रवाह का अन्तिम परिणाम समाधि होता है।
8. समाधि:- तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
अर्थात् ध्यान करते-करते अपनी स्थिति को भूलकर जब चित्त ध्येयाकार में परिणत होता है, उसकी ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं रहती, उस ध्यान का नाम ही समाधि है। किसी एक ध्येय पदार्थ में धारणा, ध्यान और समाधि ये तीनों होने से वह ‘संयम’ कहलाता है।
भिन्न-भिन्न ध्येय पदार्थों में संयम करने से भिन्न-भिन्न फल की प्राप्ति बतलायी गई है। समाधि के सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दो भेद माने गये हैं।सम्प्रज्ञात समाधि मेें सविकल्प और निर्विकल्प दो प्रकार की समाधि है। ध्येय पदार्थ में उसके स्वरूप के साथ-साथ नाम और प्रतीति का चित्त में भाव होना सविकल्प और नाम और प्रतीति का अभाव होना निर्विकल्प समाधि है और अन्त में प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने पर चित्त की वृत्तियों का अभाव हो जाना निर्बीज समाधि कहलाता है।
इसे ही असम्प्रज्ञात या धर्ममेध समाधि भी कहते हैं। निर्बीज समाधि को ही इसमें योग का अन्तिम लक्ष्य माना गया है।
इस योगदर्शन में चार पाद हैं, जिन्हें क्रमशः समाधिपाद (51 सूत्र), साधनपाद (55 सूत्र), विभूतिपाद (54 सूत्र), और कैवल्यपाद (34 सूत्र) कहते हैं। इसमें कुल मिलाकर 194 सूत्र हैं।