सम्पादकीय
भाषा और विद्या दो अलग-अलग वस्तु है | भाषा मात्र सीखने से कोई महान विद्वान् नहीं हो सकता, जबतक विद्या की प्राप्ति न कर लें | विद्या में जीवन है, वात्सल्यता है, प्रेम है, प्रकृति की साह्चर्यता है | विद्या में विवेक सम्मत विचार है और ईश्वरीयानुकूल व्यवहार भी | विद्या में सत्य का प्रकाश है, सत्य का तेज है, सत्य का ओज है, ईश्वर की प्राप्ति है, जीवन की सम्पूर्णता तथा पूर्ण कृतकृत्यता है | विद्या महान एवं दुर्लभ वस्तु है | विद्या के रहने से ही जीवन दिव्य बनता है, महान बनता है मात्र भाषायी ज्ञान के रहने से नहीं |
जीवन को संवारने का काम विद्या करती है, व्यभिचार से सदाचार में प्रवृत करने का काम विद्या ही करती है | अज्ञानी से ज्ञानी, भोगी से योगी, मूर्ख से पंडित, निरक्षर से साक्षर, अभिमानी से निरभिमानी बनना बिना विद्या के संभव नहीं | विद्या के प्रकाश में अविद्या का नाश होता है | विद्या के प्रकाश में ही भ्रम का निवारण होता है | दो, चार या दस भाषाओँ का भी ज्ञान कोई रखता हो लेकिन आचरण-व्यवहार, सदाचार, संयम, विवेक, दया, क्षमा, शान्ति गुण आदि विद्या के लक्षणों से विहीन हो तो वह विद्वान् नहीं हो सकता और न ही वहाँ पर उस भाषा का सम्मान ही हो सकता है |
विद्या भाषा में मधुरता लाती है, सौम्यता लाती है | विद्या व्यक्ति को विनम्र बनाती है, जिससे व्यक्ति की भाषा में विनम्रता, सरलता, मधुरता निःसृत होती है | यह विद्या का ही प्रभाव है जो वाणी से मुखरित होने पर समाज आकर्षित हो जाता है | विद्याओं की अभिव्यक्ति का साधन मात्र भाषा है | भाषा को सीखना बड़ी बात नहीं हो सकती | बड़ी बात है उस विद्या को प्राप्त करना जिसमें भाषा भी विनम्र और शोभायमान होती है |
विद्या और भाषा मनुष्य के जीवन में दोनों महत्वपूर्ण हैं लेकिन बिना विद्या के भाषा सम्मानित नहीं होती | विद्या के बिना भाषा पंगु है और बिना लगाम के घोड़े के समान है, जो लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता नहीं कर सकती | भाषा में विद्या के रहने से ही भाषा का विशेष आदर होता है, विशेष सम्मान होता है | विद्या जीवन को उज्जवल बनाती है | विद्या व्यक्ति की भाषा में विनम्रता लाती है | विद्या व्यक्ति की गरिमा को, व्यक्ति की प्रतिष्ठा को, व्यक्ति के व्यक्तित्व को सम्मान की पराकाष्ठा में प्रतिष्ठित कराती है |
वह विद्या जो परम सुख को उपजे, वह विद्या जो परम आनन्द को प्राप्त कराये, वह विद्या जो दुःखकारी न हो, वह विद्या जो कष्टकारी न हो, वह विद्या जिसमें वैमनस्यता न हो, वैभिचारिता न हो, अशांति न हो, कलह न हो, अहंकार न हो, क्रोध न हो, लोभ न हो, शोक न हो, हिंसा न हो वही विद्या तारणहारिणी कामधेनु है | वही विद्या अमूल्य है और परम तृप्तिदायिनी है | वही विद्या सूर्य के समान प्रकाश करने वाली, अंधकार का क्षय करने वाली, अज्ञानता का शमन करने वाली जीवनदायिनी निधि है, जिसे सदैव मणिवत सप्रेम संभाल कर अपने पास रखना चाहिए और परोपकारार्थ दूसरों में भी प्रकाशित कर सदुपयोग करना चाहिए |
फूल दिखने में कितना भी सुन्दर और आकर्षक क्यों न हो लेकिन सुगंधहीन होने से वह व्यर्थ है, उसी प्रकार व्यक्ति कितना ही सुन्दर और आकर्षक हो तथा अनेक भाषाओँ को जानने वाला हो लेकिन विद्याविहीन होने से वह उत्तम मनुष्य नहीं हो सकता और न ही वह महान कहला सकता है | महान विद्वान् बनने के लिये महान विद्या को प्राप्त करना आवश्यक है | उत्तम विद्या ही उत्तम मनुष्य का निर्माण करती है | उत्तम विद्या से ही मनुष्य का जीवन उत्तम होता है | अतः बिना विद्या के मनुष्य का दुर्लभ जीवन व्यर्थ है और पशुवत जीवन के समान है, जिसमे कोई सार नहीं |
विद्या से ही विवेक प्रकट होता है | सत्य और असत्य के बीच, धर्म और अधर्म के बीच, पाप और पुण्य के बीच, अच्छा और बुरा के बीच में विद्या ही विवेक को प्रकाश देती है और हम विवेक का सराहा लेकर उचितानुचित का सही ज्ञान करके सुखकारी निर्णय लेते है |
विद्या के भी कई भेद हैं | एक विद्या जो संसार का ज्ञान कराये, चार वेद, छः वेदांग, धर्म, मीमांसा, तर्क या न्याय तथा पुराण आदि चौदह विद्याओं के यथार्थ का ज्ञान कराकर जीवन निर्माण में सहयोग प्रदान करे तथा वह विद्या जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष आदि का विद्वान् बनाये निःसंदेह विद्या ही है और ग्रहण करने योग्य है लेकिन ये सभी विद्याएँ उस विद्या से अलग है, जिससे परमानन्द की प्राप्ति होती है, जिससे परम अक्षर की अनुभूति होती है, जिससे आत्मा की ध्वनि सुनाई देती है, जिससे आत्मा समस्त अनात्म तत्वों से पृथक होकर स्वयं के स्वरुप को देखती है और अपने ही आधार से ईश्वर की अनुभूति कर कृतकृत्य होती है |
वही दूसरी विद्या उन सांसारिक विद्याओं से पृथक एवं अद्भुत है, जिसे पराविद्या, मधुविद्या, ब्रह्मविद्या, सहजयोग, विहंगम योग, मीन मार्ग, देवयान पथ आदि नामों से शास्त्रों में वर्णित किया गया है | इसी विद्या द्वारा योगिजन ब्रह्मशक्ति का उपार्जन करते हैं | इसी विद्या द्वारा आत्मा अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर के वास्तविक भेद को जानती है | यही विद्या मोक्षदायिनी है, समस्त योगियों के लिये कल्पतरु है | इसी विद्या द्वारा अक्षर और परम अक्षर गम्य होता है | यह विद्या अलौकिक है, अनुपम है, अद्भुत है, महान है और इसको बतलाने वाले गुरु भी अलौकिक, अनुपम, अद्भुत और महान हैं | इसी विद्या के प्रभाव से आत्मा में शुद्ध आत्मबल प्रकट होता है | इसी विद्या से संसार की समस्त अविद्याएं नष्ट होकर प्रभु की प्राप्ति होती है |
अपराविद्या की ज्ञान धारा से मनुष्य अनेक लाभ प्राप्त करता है और करना भी चाहिए | प्रकृति में परा और अपरा दोनों विद्याओं की आवश्यकता है लेकिन केवल लौकिक संसाधनों में उलझ कर अपने दुर्लभ जीवन को नष्ट नहीं करना चाहिए | अपरा विद्या संसार के सुख-सुविधाओं के लिये जरूरी है | भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व अपने-अपने देश को सुखमय बनाने के लिये भौतिक विज्ञान की उत्कृष्टता को प्राप्त करे | अनेक विषयों के विशेषज्ञ, विद्वान बने और अपने देश तथा विश्व के कल्याण में उसका प्रयोग भी करे लेकिन आत्मोत्थान के लिये पराविद्या से वंचित न रहे |
संसार की समस्त विद्यायें सांसारिक कार्य-व्यवहारों को सम्पादित करने में उपयोगी होती हैं, आत्मानुभूति में नहीं | कार्य-कारण का मूल ज्ञान प्राप्त करना उत्तम है अन्यथा यह जीवन दुविधाओं में फंसकर नष्ट हो जाता है | कार्य रूप यह संसार का दृश्य-अदृश्य पदार्थ है जिसकी अनुभूति हम सबको होती रहती है | कुछ वस्तुओं का आभास किया तो जा सकता है लेकिन इन्द्रियों के माध्यम से पूर्ण रूप से उसे नहीं जाना जा सकता | कारण का प्रत्यक्ष बोध प्राप्त करने के लिये विद्या ही एक जरिया है | पराविद्या से ही कार्य और कारण का पूर्ण बोध प्राप्त होता है |
देव विद्या, दैव विद्या, क्षात्र विद्या, नक्षत्र विद्या, धनुर्विद्या, भूतविद्या, निति विद्या आदि विद्यायें भौतिक जगत की विद्यायें हैं | भौतिक विद्या द्वारा भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, पारलौकिक तत्वों का अपरोक्ष अनुभव नहीं | भौतिक विद्यायें भी तभी सुशोभित होती हैं जब अध्यात्म का विमल प्रकाश उसमें सन्निहित होता है | केवल भौतिकतापूर्ण जीवन नीरस और निरर्थक है |
केवल भौतिक संसाधनों को ही प्राप्त करना मानवमात्र का मुख्य उद्देश्य नहीं हो सकता क्योंकि इसमें जिस वस्तु की मूल ख़ोज की जाती है वह शाश्वत रूप से नहीं मिलता बल्कि क्षणिक रूप में मिलकर पुनः और प्राप्ति हेतु उत्प्रेरित करता है | यह उत्प्रेरणा अंततः मनुष्य को उसके मुख्य उद्देश्य( परम आनन्द, जो शाश्वत है, नित्य है) से दिग्भ्रमित कर संसार के वासनाओं में फंसाये रखती है, जिसमें मनुष्य क्षणिक सुखों के बीच आबद्ध होकर अपार कष्टों को प्राप्त करता रहता है |
अतः जबतक विद्या का प्रत्यक्ष बोध प्राप्त नहीं कर लेते तबतक अविद्या से हम अलग नहीं हो सकते | अविद्या में अँधेरा है और विद्या में प्रकाश | अविद्या में किसी वस्तु के प्रति मतभिन्नता है और विद्या में मतैक्यता | अविद्या में दुःख की खेती होती है और विद्या में सुख की | अविद्या रूपी नाव गर्त में ले जाता है और विद्या रूपी नाव सुखसागर में | अविद्या का क्षेत्र जितना बढ़ेगा अशांति भी उतना ही अधिक फैलेगी क्योंकि विद्या में शांति है और अविद्या में अशांति | इसलिए प्रत्येक मनुष्य का यह धर्म है कि वह विद्या के प्रकाश में अपना जीवन व्यतीत करें |
-सनियात
सम्पादक एवं संस्थापक
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