तन्त्रयोग
तन्त्रयोग या तन्त्र-साधना आज बड़ा ही व्यापक मगर विवादास्पद साधना मानी जा रही है। तन्त्र साधना आज भिन्न-भिन्न रूपों में परिलक्षित हो रही है, इसलिए वास्तविक स्वरूप को जानना दुःसाध्य-सा हो गया है। कहीं-कहीं इसे ‘काम-शक्ति’ का पर्यायवाची बना दिया गया है। वैसे ‘तन्त्र’ शब्द की उत्पत्ति ‘तन्’ धातु से है, जिसका अर्थ विस्तार होता है। ‘‘तन्यते विस्तार्यते ज्ञानं अनेन इति तन्त्रम्’ अर्थात् जिससे ज्ञान का विस्तार हो एवं जो रक्षा करे वह ‘तंत्र’ है।
तन्त्र के अनुसार सृष्टि के महाकारण शिव हैं और उन्हीं के द्वारा ज्ञान का नादात्मक प्रसार हुआ है। इसलिए तन्त्रशास्त्र में अनेक ग्रन्थ शिव-पार्वती, भैरव-भैरवी या उमा-माहेश्वर के संवाद के रूप में है। इस तरह तन्त्रशास्त्र का उद्गम महाशिव से माना गया है। तन्त्र के मूल स्रोत तीन देवता माने गये हैं और इसीलिए तन्त्रशास्त्र भी इन्हीं के नाम पर तीन भागों में विभाजित है- वैष्णवागम, शैवागम तथा शाक्तागम।
तन्त्र एक व्यापक विषय है और इसमें सृष्टि, प्रलय, मन्त्र, आश्रम धर्म, कल्प, ज्योतिष तथा अध्यात्म के अनेक विषयों का समावेश माना जाता है। तन्त्र की मान्यता के अनुसार कलियुग में जब वैदिक धर्म समाज के लोगों द्वारा उनकी अल्प बुद्धि से परे हो जायेगा, उस समय तन्त्र-मार्ग ही उपयुक्त रहेगा- ऐसा भगवान् ‘शिव’ के द्वारा ‘महानिर्वाण तन्त्र’ में कहा गया है।
तन्त्रयोग से अर्थ उस तान्त्रिक साधना-पद्धति से है, जिसके द्वारा इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों की उपलब्धि बतलायी जाती है। भारत में प्रचलित तान्त्रिक साधनाओं में शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपत्य एवं सौर साधनाएँ प्रमुख हैं। तन्त्र-साधना में विभिन्न प्रकार के मन्त्रों का वर्णन आता है, जिसे सिद्ध करने के अनेक पूजनोपचार एवं विधियाँ साधकों द्वारा अपनायी जाती है।
तान्त्रिक अनुष्ठानों द्वारा मन्त्रों को सिद्ध करने से अनेक सिद्धियों की प्राप्ति होना बतलाया गया है। इन प्रक्रियाओं में चित्त को एकाग्र कर उसके सूक्ष्म प्रभावों के सम्प्रेषण का विशेष महत्त्व रहता है। मन्त्रों के स्वरों में एक विशेष प्रकार का उच्चारण एवं तान्त्रिक अनुष्ठानों में विभिन्न प्रकार के पूजन सामग्रियों का प्रयोग करके साधक अपने चित्त को एक विशेष भाव-भूमि पर केन्द्रित करते हैं।
तन्त्र के नाम पर आज जो सर्वप्रचलित साधना है- वह शाक्त साधना है। इस शाक्त साधना को भी दो भागों में विभाजित किया गया है- दक्षिण मार्ग एवं वाम मार्ग। शाक्त-पद्धति की तन्त्र-साधना में प्रयुक्त होने वाले पंच मकार- मद्य, मांस, मीन, मुद्रा एवं मैथुन का सूक्ष्म प्रतीक के रूप में मानकर सात्त्विक वृत्ति से जो साधनाएँ की जाती हैं- वह दक्षिण मार्ग है।
इसके विपरीत इन पंच मकारों के शाब्दिक अर्थ के अनुरूप भौतिक पदार्थों को ही स्थूल रूप में मानकर जो साधनाएँ की जाती हैं- वे वाम मार्ग की साधनाएँ हैं। ये पंच मकार,पंच महाभूत भी माने गये हैं, यथा मद्य को अग्नि, मांस को वायु, मीन को जल, मुद्रा को पृथ्वी और मैथुन को आकाश के प्रतीक मानते हैं। विशुद्ध तन्त्र के अनुसार मैथुन का अर्थ भी स्त्री-पुरुष समागम नहीं है बल्कि मस्तिष्क के केन्द्र में होने वाला शिव एवं शक्ति का संयोग है।
वामाचार में पंच मकारों की स्थूल साधना से इसे प्रायः लोग हेय एवं शंकालु दृष्टि से देखते हैं। मगर वामाचारी इन्हें हेय नहीं मानते, बल्कि उन्हें मुक्ति का साधन मानते हैं। वाममार्गी साधना में भी क्रमशः दिव्य भाव को ही साधना की उच्चतम भूमि बतलायी जाती है। इसे प्राप्त करने के लिए पशुभाव एवं वीरभाव की भावभूमि का अतिक्रमण करना पड़ता है।
वाम मार्ग की साधना में चक्रपूजा एक सामूहिक उपासना है। इस चक्रपूजा में जो व्यक्ति अध्यक्ष होता है- वह चक्रेश्वर कहलाता है। चक्रेश्वर अपनी शक्ति (पत्नी) के साथ चक्र के मध्य में बैठता है। बाकी सभी साधक भैरव और भैरवी के रूप में गोल चक्र बनाकर बैठते हैं। फिर पंच मकार यानी मांस, मदिरा एवं मीन आदि को चक्रेश्वर की पूजा-विधि से अर्पण करके उसे देवी का साक्षात् प्रसाद मानकर साधक उसका स्वयं प्रयोग करते हैं। इन अनुष्ठानों में यथाक्रम स्त्रियों एवं पुरुषों की संख्या नियत रहती है और ये गुह्य कर्मकाण्ड सुरक्षित स्थान पर किये जाते हैं। चक्रपूजा जैसा ही गुह्य विधान शव-साधना, अघोर-साधना एवं कौलाचार आदि की भी है।
तन्त्रशास्त्र में बहुत जुगुप्साजनक शब्द प्रयुक्त होते हैं- जो सामान्य रूप से भोगवाद प्रवृत्ति के द्योतक लगते हैं और इनके द्वारा परम तत्त्व की प्राप्ति की बातें सहज रूप से बोधगम्य नहीं लगती है। कुछ तान्त्रिक साधनाएँ घृणास्पद भी लगती हैं, मगर उनका ठीक-ठीक प्रयोग किस अर्थ में होना चाहिए, यह कहना भी कठिन प्रतीत होता है। ऐन्द्रिक तृप्ति प्राप्त कर या ऐन्द्रिक सुखों में अमर्यादित ढंग से लिप्त होकर किस तरह मुक्ति की अभिलाषा की जाती है, यह बात जनसामान्य की समझ में नहीं आती है।
कुछ विद्वान् ‘तन्त्र’ की इन मान्यताओं में विशेष अर्थ पर बल देते हैं। उनका कहना है कि जिन सोपानों से मनुष्य का पतन होता है, उन्हीं सोपानों से उसे ऊपर चढ़ना है। इस तरह अपनी यौन ऊर्जा को चेतना के विकास के लिए प्रयोग किया जा सके-यही तन्त्र साधना का उद्देश्य है। इनकी मान्यता है कि तन्त्र में इन्द्रियों तथा उनकी अनुभूतियों का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि उनके आगे और क्या हो सकता है तथा उसकी अन्तिम सीमा कहाँ तक है? तन्त्र की मान्यता है कि यौन तान्त्रिक साधना के द्वारा व्यक्ति की सूझ-बूझ परिष्कृत होती है और वह स्त्री तथा पुरुष के समागम को शक्ति तथा शिव के रूप में देखता है, जिससे साधकों के भीतर चेतना के विस्तार की अनुभूति होती है।
तन्त्र में ऐसे भी अनेक अभ्यास हैं जो यौन ऊर्जा को संयमित तथा नियंत्रित करते हैं। तन्त्र के अनुसार यौन-क्रिया के तीन प्रयोजनों- प्रजनन, इन्द्रिय-सुख और मुक्ति को पृथक् रूप से ठीक से समझ कर अन्ततः मुक्ति तक पहुँचाना है। जिन पंच मकारों की ऊपर चर्चा की गई है उसका भी उद्देश्य आध्यात्मिक है- ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ‘मैथुन’ शिव और शक्ति का मिलन है, मांस पशु प्रवृत्ति के विसर्जन का प्रतीक है, मद उस अवस्था का बोधक है जहाँ पर चक्र की जागृति के बाद सहस्रार से अमृत रस की बूँदों की प्राप्ति होती है।
इसी प्रकार मुद्रा और मत्स्य के भी कुछ आध्यात्मिक सूक्ष्म संकेत हैं। इन पंच मकारों की साधना का एक यह भी अर्थ निकाला जाता है कि इसके माध्यम से विषयों में संलग्न इन्द्रियों की संवेदनाओं को पहले तीव्र किया जाय और उन अवस्थाओं का द्रष्टा भाव से निरीक्षण किया जाय, तभी उनका नियन्त्रण सरल हो जाता है। तन्त्र के अनुसार जब यौन-साधना में पुरुष की ऊर्जा पिंगला तथा स्त्री की ऊर्जा इंगला बन कर पूरी तरह स्थिर तथा संतुलित होती है तो सुषुम्ना की जागृति से कुण्डलिनी जागरण हो जाता है और तब साधक को चरम आनन्द की प्राप्ति होती है।
इस तरह इस तन्त्र-साधना का प्रयोग वे उच्च-चेतना की प्राप्ति के अर्थ में लेते हैं। तन्त्र यह भी मानता है कि इस प्रकार की साधनाएँ तान्त्रिक गुरु के निर्देश में ही की जाय। ‘रत्नसार तन्त्र’ में कहा गया है कि जो शरीर में सत्य को जान लेता है, वह ब्रह्माण्ड के सत्य को भी जान सकता है। इस तरह तन्त्रसाधना में कहीं यौन-साधना स्थूल रूप से दिखलाई पड़ती है, तो कहीं इसके सूक्ष्म आध्यात्मिक रहस्य को भी रूपायित करने का प्रयास किया जाता है। कुछ भी हो मगर ये कहना कठिन है कि इस प्रकार की गुह्य साधनाओं से आम व्यक्ति चेतना के स्तर पर कितना ऊँचा उठ पायेगा अथवा वह आसक्ति के व्यूह में ही फँसता जायेगा।
तन्त्रयोग में षट्चक्र-भेदन की साधना भी मोक्ष-प्राप्ति का एक साधन है। ये षट्चक्र शरीर में स्थित ब्रह्माण्ड के पाँच तत्त्व एवं चित्त के प्रतीक हैं। मूलाधार चक्र पृथ्वी का, स्वाधिष्ठान चक्र जल का, मणिपूरक चक्र अग्नि का, अनाहत चक्र वायु का, विशुद्ध चक्र आकाश का तथा आज्ञा चक्र चित्त के निवास का प्रतीक है। इन षट्चक्रों के भेदन का साधन मन्त्र है।
चक्रांे के भेदन करने से साधक के सामने शक्ति के विविध ऐश्वर्य प्रकट होते हैं। आठ सिद्धियाँ एवं नव निधियांे की प्राप्ति भी इस षट्चक्र-भेदन से सम्भव मानी गयी है। चैतन्य किये हुए शब्द की साधना से कुण्डलिनी जाग्रित होती है और उस कुण्डलिनी को भावना-शक्ति से अनुप्राणित करके साधक षट्चक्र-भेदन करते हैं। तन्त्र में वर्णित प्रत्येक चक्रों का रंग, दल, देवता, वाहन एवं बीज मन्त्र आदि भी बतलाये जाते हैं।
इस तरह तन्त्रयोग एक विचित्र मार्ग के रूप में शताब्दियों से चला आ रहा है और आज भी किसी-न-किसी प्रकार उसी गुह्य रूप में विद्यमान है। इसके सम्बन्ध में अधिक कहना यहाँ अभिप्रेत नहीं है- इसीलिए तन्त्र की मूल मान्यताओं को मात्र जानकारी के लिए यहाँ दिया गया है।