भक्तियोग (Bhaktiyoga) meaning in hindi

भक्तियोग

 

भक्तियोग आत्मसमर्पण का योग है। यह आत्मसमर्पण उस परम प्रभु के या उसके प्रतीक के रूप में विभिन्न देवताओं के आश्रय में अहंकारशून्य निष्काम भाव से किया जाता है। विशुद्ध भक्ति के द्वारा शरीर की शुद्धि हो जाती है और अनेक दोषों का निवारण होकर आत्मा की चेतना शुद्ध हो जाती है।

भक्तियोग भारत के जनसामान्य में विशेष रूप से प्रचलित है। इसमें साधक मस्तिष्क के धरातल पर अध्यात्म के दुरूह शब्दों का चिन्तन किये बिना अपने आराध्य के स्वरूप का ध्यान करते हुए उनकी प्रशस्ति में मन्त्रों का उच्चारण करते हुए या प्रशस्ति के गीत गाते हुए भावविभोर हो अपने को उनके चरणों में समर्पित कर देते हैं। भक्त के हृदय से जब अहंकार एवं वासना मिट जाती हैं, तब उस पवित्र स्थान पर भगवान् स्वयं विराजमान दृष्टिगत होने लगते हैं, ऐसी भक्तियोग की मान्यता है। परमेश्वर के स्वरूप का प्रेमपूर्वक चिन्तन करते हुए मन को तदाकार करना ही भक्तियोग का एक सुलभ उपाय है।

शाण्डिल्यसूत्र में भक्ति की परिभाषा इस तरह की गई है ‘‘सा (भक्ति) परानुरक्तिरीश्वरे’’ अर्थात् ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम निष्काम, निष्प्रयोजन एवं निरन्तर होता रहे। भक्ति नौ प्रकार की बतलायी गई है, यथा-

श्रवणं कीर्तणं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
– श्रीमद्भाग0 7/5/23

इस भक्तियोग की वास्तविकता इस अर्थ में है कि साधक इस बात को ठीक से समझे कि भक्ति मार्ग का फल किसी पूजित प्रतीक में नहीं है, बल्कि उस प्रतीक के प्रति हमारा जो आन्तरिक भाव है उस भाव की शुद्धता में है। श्रीमद्भगवद्गीता में भक्ति करने वाले लोग चार प्रकार के बतलाये गये हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी और ज्ञानी। इसमें अनन्य भाव से भक्ति करने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ माने जाते हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण की कई उक्तियाँ भक्तियोग से सम्बन्धित मानी जाती है। यथा:-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
– गीता 4/39

 

अर्थात् जब श्रद्धावान् पुरुष इन्द्रियनिग्रह द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है, तब उसे ब्रह्मात्मैक्य रूप ज्ञान का अनुभव होता है और फिर उस ज्ञान से उसे पूर्ण शान्ति मिलती है। इसी तरह गीता के अठारहवें अध्याय के श्लोक 55 में कहा गया है-
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।

 

अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे स्वरूप का तात्त्विक ज्ञान भक्ति से होता है और जब यह ज्ञान हो जाता है तब वह भक्त मुझमें आ मिलता है।
भक्तियोग की उपलब्धि ईश्वरार्पण बुद्धि में ही है। भागवत में भी भक्तियोग के सम्बन्ध में एक श्लोक है-
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वाऽनुसृतस्वभावात्।
करोति यद्तत्सकलं परस्मै नारायणायैति समर्पयेत्तत्।।

 

अर्थात् काया, वाचा, मनसा, इन्द्रिय, बुद्धि या आत्मा की प्रवृत्ति से अथवा स्वभाव के अनुसार जो कुछ हम किया करते हैं, वह सब परात्पर नारायण को समर्पण कर दिये जायँ। यही भक्ति की वास्तविक भूमि है।
आज बहुत से लोग भक्ति का अर्थ सामान्यतः कीर्तन करना, भजन गाना, प्रार्थना करना आदि तक ही सीमित रखते हैं। वास्तव में ये भक्ति के प्रारम्भिक चरण हो सकते हैं। मगर सही अर्थ में ये भक्ति के पर्याय नहीं हैं।
आजकल तो इस बाह्य भक्ति के प्रारम्भिक स्तर में भी अनेक प्रकार की गिरावटें आती आ रही हैं। कोई सिनेमा के तर्जों पर बिना कुछ सोचे-समझे भजनों का आलाप ले रहा है तो कोई ताल-सुर के साथ भाव-नृत्य को प्रश्रय दे रहा है। भक्ति के नाम पर फूहड़ता का भी प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है।
स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध और यहाँ तक कि कथा-वाचक भी फिल्मी अन्दाज में भाव-भंगिमा दर्शाते हुए नृत्य-संगीत को बढ़ावा दे रहे हैं। सद्गुरु कबीर साहब की एक व्यंग्यात्मक वाणी है-
नाचना कूदना ताल को पीटना, राँड़िया खेल की भक्ति नाहीं। 
रैन दिन तार निरधार लागी रहै, कहैं कबीर तब भक्ति पाहीं।।

 

यानी आत्मा की तार जब दिन-रात उस परमात्मा (निराधार) से लगी रहे, तभी वह विशुद्ध भक्ति कहलाती है। आज भक्ति के यथार्थ को जानने की जरूरत है। तथाकथित भक्तियोग भी हमें अन्धभक्ति नहीं सिखलाता है। इस भक्तियोग के मर्म को भी जानने की जरूरत है। इस सामान्य भक्ति में भी भाव-पक्ष की प्रधानता है और वह भाव-प्रदर्शन कृत्रिम नहीं होना चाहिए।

अपने इष्ट के प्रति प्रेम हार्दिक होना चाहिए और बिल्कुल शुद्ध अन्तःकरण से यह भक्ति-भाव जाग्रत होना चाहिए। इस भक्तियोग में अहंकारशून्यता का महत्त्व रहता है और भक्त अपने भगवान् के प्रति आन्तरिक रूप से पूर्णतः समर्पित रहता है। इसलिए भक्ति कभी भी केवल बाह्य प्रदर्शन के लिए नहीं की जाती बल्कि आन्तरिक भूमि में मन को निर्मल करके समर्पण की भावना के साथ की जाती है। 

इस भक्ति योग में समाधि तक की चर्चा है मगर उसके पूर्ण विज्ञान को किसी समर्थ सद्गुरु से सीखने की जरूरत है। भक्तियोग में धीरे-धीरे अन्तःकरण की शुद्धि करनी पड़ती है और सामान्य भक्ति से ज्ञानजन्य भक्ति की ओर हमारी यात्रा होती है।
भक्तियोग में समाधि की प्राप्ति के लिए साधक अपने इष्ट देवता का अपने हृदय में स्मरण करते हुए उनके दिव्य स्वरूप में भावविभोर हो अपने अहं को छोड़कर एक तादात्म्यकता का अनुभव करते हैं और भाव-विह्नवलता के इस क्षण में अपनी सुध-बुध खो देते हैं।
यह अवस्था प्रारम्भ में भावात्मक ही रहती है, मगर धीरे-धीरे अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है और बार-बार इस अवस्था की आवृत्ति से साधक की चेतना आप-ही-आप उन्नत होने लगती है और अन्त में  उसे यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है। भक्तियोग में परमात्मा से तादात्म्य सहज रूप से हो जाता है, ऐसा बतलाया गया है।
भक्ति योग का अर्थ | Bhakti yoga meaning in hindi

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *