कुण्डलिनी योग
प्रायः प्रत्येक योग में कुण्डलिनी-शक्ति के अस्तित्व को किसी-न-किसी रूप से स्वीकारा गया है। मगर विशेष रूप से कुछ साधक कुण्डलिनी जागरण के लिए जिस साधना को करते हैं, उसे कुण्डलिनीयोग का नाम दिया गया है। यह कुण्डलिनी क्या है और इसका जागरण कैसे होता है, इस पर हम थोड़ा विचार करेंगे।
इस कुण्डलिनी-शक्ति का मूल निवास मूलाधार चक्र को ही माना गया है, जो योनि-मार्ग से थोड़ा ऊपर है। इसी मूलाधार चक्र में साढ़े तीन वलय में लिपटी हुई कुण्डलिनी सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती है। इसका सम्बन्ध ऊपर में सुषुम्ना से होेते हुए सहस्रार में स्थित ‘शिवलोक’ में माना जाता है।
साधन-अभ्यास से जागृत होने पर यह कुण्डलिनी ऊध्र्वगमन करने लगती है और सभी चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर शिव-शक्ति का मिलन कराती है। इसे ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। जिस तरह बिजली का बटन दबाने से प्रकाश हो जाता है, उसी तरह कुण्डलिनी के जागरण से अन्तर में प्रकाश हो जाता है और सभी नल-चक्रों की शक्तियाँ प्रकट रूप में दिखलाई पड़ने लगती हैं और देह के आन्तरिक रहस्य प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हो जाते हैं।
विशेष प्राणायामों की साधना से अथवा हठयोग की विभिन्न क्रियाओं से प्राणोत्थान होने लगता है, जिससे कुण्डलिनी-शक्ति का ऊर्ध्वगमन होने लगता है। ऐसा होने के साथ ही मूलाधार से लेकर सुषुम्ना के शिखर तक एक गति या कम्प जैसा अनुभव होता है।
धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ने पर कुण्डलिनी-शक्ति की दिव्य ज्योति सुषुम्ना में प्रविष्ट हो उसे प्रदीप्त करती हुई उसके आधार पर स्थित सभी चक्रों की शक्ति को जगाकर प्रकाशित करती हुई सहस्रार तक पहुँच जाती है। इस अवस्था में साधक को अपूर्व दिव्य ज्योति एवं दर्शन प्राप्त होते हैं तथा एक अवर्णनीय आनन्द की अवस्था भी प्राप्त होती है। अथर्ववेद में एक मन्त्र है-
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
अर्थात् इस शरीर रूपी अयोध्या नगरी में नव द्वार और आठ चक्र हैैं। इन आठ चक्रों का स्थान सुषुम्ना नाड़ी में बतलाया गया है। इन चक्रों के नाम क्रमशः- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, ब्रह्मरन्ध्राख्य एवं सहस्रार हैं। कुण्डलिनीयोग में इन्हीं चक्रों को खिलाते हुए, कुण्डलिनी-शक्ति को जगाकर सहस्रार में पहुँचाने की साधनाएँ की जाती है।