कर्मयोग
‘कर्म’ शब्द संस्कृत के ‘कृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘करना’ होता है। इस तरह कर्मयोग से अर्थ उस योग से लिया जाता है, जिसमें कर्म करते हुए ईश्वर-प्राप्ति के प्रयास किये जाते हैं। हम अपने जीवन के प्रत्येक पल में कोई-न-कोई कर्म सदैव करते रहते हैं।
ये कर्म किसी-न-किसी रूप में जाने-अनजाने होते ही रहते हैं। ये कर्म कायिक, वाचिक या मानसिक होते हैं। अतएव स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि किस तरह का कर्म करने से कर्मयोग होता है। इस सन्दर्भ में गीता में वर्णित कर्मयोग का सिद्धान्त सबसे अधिक ग्राह्य है ‘गीता’ के अनुसार कर्म करने की एक विशेष प्रकार की युक्ति को ही कर्म योग कहते हैं। यथा-
‘‘योगः कर्मसु कौशलम्।’’
कर्म-सिद्धान्त का यह सामान्य नियम है, हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। इस नियम के अनुसार शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है। इसी तरह सुख और दुःख भी क्रमशः हमारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल ही माने जाते हैं। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त एक प्रकार का नियम है जो नैतिक व्यवस्था की व्याख्या करता है, मगर यह कर्म-सिद्धान्त सभी कर्मों पर लागू नहीं होता।
जो कर्म किसी उद्देश्य से यानी राग-द्वेष वा वासना (फल-प्राप्ति) से युक्त हो किये जाते हैं, उन पर तो कर्म-सिद्धान्त लागू होता है मगर जो कर्म बिना किसी इच्छा के यानी निष्काम-भाव से किये जाते हैं, वे कर्म-सिद्धान्त से स्वतन्त्र होते हैं।
निष्काम-कर्म का अर्थ कर्म का अभाव नहीं होता है। हम कर्मशून्य हो ही नहीं सकते। किसी-न-किसी रूप में हम सदा नित्य, नैमित्तिक (निमित्त होने पर), काम्य (इच्छा प्राप्ति हेतु) एवं निषिद्ध कार्य करते ही रहते हैं। इस तरह कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के लिए आसक्ति छोड़कर उन्हें करना आवश्यक होता है और यही निष्काम कर्म है। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण इस सम्बन्ध में कहते हैं-
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।
– गीता 3/19
अर्थात् हे अर्जुन ! तब तू भी आसक्ति छोड़कर अपना कर्म सदैव किया कर, क्योंकि आसक्ति छोड़कर कर्म करने वाले मनुष्य को परम गति प्राप्त होती है। इस तरह यह अहंकार-युक्त आसक्ति छूटती कैसे है, इस सन्दर्भ में गीता में कहा गया है-
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सैं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।
– गीता 5/11
अर्थात् कर्मयोगी शरीर से, मन से, बुद्धि और इन्द्रियों से आसक्ति छोड़कर आत्म-शुद्धि के लिए काम करते हैं।
कर्म-फल की इच्छा न रखकर कर्म करना निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म करने वाले के शुभाशुभ कर्म बन्धन के कारण नहीं होते। यह साधारण मान्यता है, क्योंकि मात्र कर्म-फल-भोग की इच्छा न रखने से कर्म कत्र्ता को उसके द्वारा किये गये कर्म-फल उसे नहीं मिलेंगे, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि कर्म करने में हम स्वतन्त्र हैं। उनके फल-भोग में हमारा अधिकार नहीं है। ऐसा नहीं है कि शुभ कर्मों के शुभ फल को हम स्वीकार कर लें और अशुभ कर्मों के अशुभ फल को ग्रहण नहीं करें।
यह सिद्धान्त हमारी इच्छा पर आधारित नहीं है। अतः कर्म के बन्धन से मुक्त होने के लिए हमें योग-युक्त होकर कर्म करना होगा। वस्तुतः योगी ही निष्काम एवं अनासक्त हो सकता है। मात्र इच्छा-त्याग करके कर्म करने वाला साधारण व्यक्ति नहीं। इसलिए पूर्णतः निष्काम कर्म करने वाला कर्मयोगी ही है, जिसके द्वारा योग-युक्त होकर किये जाने पर कर्म बन्धन के कारण नहीं होते। इस तरह सामान्य मान्यता के अनुसार कर्मयोग में अनासक्त भाव से प्रत्येक कर्म को करते हुए चित्त-शुद्धि द्वारा अन्ततः ईश्वर-प्राप्ति को सम्भव बतलाया गया है।